कहने को तो मैं इंसान हूँ
पर मेरा ख़ुदा पत्थर के मकान में रहता है
वैसे तो दिल है मेरे पास
पर मेरा ख़ुदा आसमान में रहता है
ढूंढता हूँ मैं अपना ख़ुदा मंदिरों व मस्जिदों में
शायद मेरे दिल में अब जगह ही नहीं बची
खुद को देख कर आश्चर्य होता है
ख़ुदा ने ऐसी रचना क्यूँ रची
जो उसी को बाँट कर एक दुसरे के खून का प्यासा है
मानवता से बड़ी जिसकी अपनी ही अभिलाषा है
कभी कभी खुछ ख़याल टकराते रहते हैं, आपको उन्हीं खयालों से रूबरू कराने की ख्वाहिश लिए ये ब्लॉग आपकी खिदमत में हाज़िर है
Saturday 21 August 2010
Saturday 14 August 2010
दोस्त
I never thought that I would be expressing my views my thoughts on blogs, never thought that I would be writing. But it was one lovely friend of mine "Dimple" who made me write. Now, it is her words again which made me write this. So I dedicate it to her.
दुआ भी न माँगना रब से मेरी खातिर,
कि हमको रब से भी कुछ मांगना अच्छा नहीं लगता|
ये ना सोचना ऐसा कि मुझको रंज रब से है,
कि रब भी मेरा माँगा कभी टाला नहीं करता|
कहीं ये पूछ बैठो तुम कि मैं मांग कब बैठा,
तो ख़ुद को देख लो समझो कि मैं ऐसे नहीं ऐंठा|
के तेरे जैसे दोस्त जो मुझे बिन मांगे मिलते हैं
तो बोलो के ख़ुदा से अब ये मेरा माँगना कैसा|
दुआ भी न माँगना रब से मेरी खातिर,
कि हमको रब से भी कुछ मांगना अच्छा नहीं लगता|
ये ना सोचना ऐसा कि मुझको रंज रब से है,
कि रब भी मेरा माँगा कभी टाला नहीं करता|
कहीं ये पूछ बैठो तुम कि मैं मांग कब बैठा,
तो ख़ुद को देख लो समझो कि मैं ऐसे नहीं ऐंठा|
के तेरे जैसे दोस्त जो मुझे बिन मांगे मिलते हैं
तो बोलो के ख़ुदा से अब ये मेरा माँगना कैसा|
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