Friday 24 December 2010

मानवता की पुकार

मानवता की पुकार

हे मानव तू अब जाग जाग
है मानवता में लगी आग

क्या फड़कता नहीं अब रोम रोम
एक कर दे अब तू धरा व्योम

देखे कैसे तू दुराचार
फैला जाये ये भ्रष्टाचार

अब कृष्ण नहीं कोई आएगा
तुझे राह नहीं दिखलायेगा

तुझे डगर स्वयं चुननी होगी
तुझे सहर नयी चुननी होगी

एक धर्म युद्ध कर प्रारंभ
नए युग का होगा आरम्भ

ये झूठे स्वप्न दिखाने वाले
आपस में आग लगाने वाले

ये कृष्ण नहीं, शकुनी हैं ये
दुष्ट बड़े कपटी हैं ये

इश्वर के नाम लड़ाते हैं
खुद उन्हें बेच के खाते हैं

ये राजनेता ये व्यभिचारी
मौला, पंडित भगवाधारी

ये दुराचारी ये दुष्ट बहुत
हो इनपे अब तू रुष्ट बहुत

सुन देश पुकारे बार बार
सुन अपने अंतर्मन की पुकार

कर आरम्भ नयी श्रृष्टि का
ये हो प्रारंभ नयी दृष्टि का

जहाँ सारे जन हों रहे निहाल
ऐसा हो अपना देश विशाल

न किसी को किसी से बैर रहे
अपने हों सभी, उनकी खैर रहे

उदित हो आदित्य दीप्त
विश्व में होगा भारत प्रदीप्त

Sunday 19 December 2010

बंदिश

ये बंदिशें बड़ी अजीब होती हैं,
हर इंसान का नसीब होती हैं|

चाहता हूँ तोड़ जाऊं अभी,
खुले में पंख फैलाए उड़ जाऊं अभी|

हर तरह से जोर-ओ-आजमाइश की,
फुसला के मनाने की भी साजिश की|

ये मेरे मन से जुड़ी हैं न छूटेंगी,
लाख चाहूँगा फिर भी न टूटेंगी|

ये जंजीरें हैं मेरे ईमान की,
मेरे अन्दर बैठे हुए उस इंसान की|

ये मेरा है मुझीसे टकराता है,
ये मेरा ज़मीर है मुझे इंसान बनाता है|