Sunday 27 June 2010

मोह और कर्त्तव्य

जब भी मै और मेरे पिता आध्यात्म पे बातें करते है, दो शब्दों का जिक्र ज़रूर आता है : मोह और कर्त्तव्य. जब से इन दोनों शब्दों से अवगत हुआ हूँ इन दोनों के बीच के अंतर को समझने में थोड़ी कठिनाई हुयी है. मोह का त्याग करने के चक्कर में कभी कभी ऐसे लगता है की जैसे में अपने कर्तव्यों से दूर तो नहीं जा रहा, अपने मूल्यों को भूल तो नहीं रहा. और साथ ही कभी कभी ऐसा लगता है जैसे कर्तव्यों समझने में भूल कर मोह-माया में तो नहीं पड़ रहा.


ये कोई नया विषय नहीं है, संपूर्ण गीता का आधार यही दोनों शब्द हैं. पर गीता के अध्ययन के बाद भी कहीं न कहीं कोई भ्रान्ति मन-मस्तिष्क में बनी रहती है. 

2 comments:

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

wah kya baat hai...
shaayad moh mein pad kar hee kuchh kartavyon ko pooraa kiya jaa sakta hai aur kuch kartavya aise hote hain jo naa chahte huye bhi moh maaya mein baandh lete hain!

Dimple said...

FRMC,

Both these words are damn complicated & just make life a cobweb & daring we humans are!! :)

I was listening to a song & there was a line... "Please just save me from this darkness" ...
I wish some day ... I'm saved ;-)

Regards,
Dimple