कुछ दिनों पहले "दिनकर" जी की रचना "जनतंत्र का जन्म" पढ़ रहा था, उस अनुपम काव्य रचना को पढ़ कर अनायास अभी के जनतंत्र की अवस्था पर विचार कर बैठा जिसका परिणाम यह कविता है| उम्मीद है आपको अच्छी लगेगी
जनतंत्र की मृत्यु हो चुकी, देखो शैया पे लेटा है
सोया है आँखे मूँद, आजाद भारत का बेटा हैनब्ज़ टटोलो देखो कुछ सांस अभी गर बाकी हो
इसकी जर्जर हड्डियों में जान अभी कुछ बाकी हो
जनतंत्र द्रौपदी बन चूका, इद्रप्रस्थ में पुन: आज
दू:शासन हैं सभी, ना भीष्म, विदुर और न धर्मराज
हनन होता इसके सम्मान का, लुटती इज्ज़त रोज़
जनता होकर मौन सह रही इस अपमान का बोझ
बापू, नेहरु और शहीदों ने जो सपना देखा भारत का
अभी कितने टुकड़े होने है उनकी लिखी इबारत का
लूट रहे हैं नेता सारे, घुट घुट मरता जनतंत्र यहाँ
स्विस बैंक में जमा हुआ है, लूट का माल गया वहाँ
जागो जनता सिंहनाद करो, उठो और हुंकार करो
गरजो तुम इतना भीषण, गांडीव बिना टंकार करो
भगत सिंह और बापू के अरमानो को जीवंत करो
अमृत पान कराओ, हिंद को सच का जनतंत्र करो