रोज़ कुछ नए सपने कुछ ख्वाब नए बुनता हूँ
एक नयी आस लिए मन की उड़ान चुनता हूँ
एक दिन ख्वाब में देखे गए महल गिर जायेंगे
जानते हुए भी रोज़ नयी दीवार एक चुनता हूँ
सब हैं चोर हुकूमत के इन गलियारों में
फिर भी अपने लिए सरकार नयी चुनता हूँ
यकीन नहीं कर पाता ख़ुदा में न ही जन्नत में
अब तो हर रोज़ ही एक बुरी खबर सुनता हूँ
आजकल आम हुए हैं बम के धमाके 'फणि'
इसलिए जाँ अपनी हथेली पे लिए घूमता हूँ
5 comments:
Suberb !!! keep up the good work !!
वर्तमान परिस्थिति में एकदम प्रासंगिक है आपकी रचना ............आभार
दूर हूँ अपनो से पर इक तस्वीर है पर्चों के पुलिँदो में
कमीज़ की जेब में रक्खे शहर सारा घूमता हूँ
ना जाने कब् कोइ धमाका मुझे भी ले उडे
इसलिए घर से निकलने से पहले और घर आने के बाद
सब से पहले वोही तस्वीर चूमता हूँ!
Wonderfully composed!
You have done a fabulous job of writing such a nice and meaningful poem...
Touchy!
Dimple
I Appreciate.
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