Saturday 16 July 2011

जाँ अपनी हथेली पे लिए घूमता हूँ

रोज़ कुछ नए सपने कुछ ख्वाब नए बुनता हूँ
एक नयी आस लिए मन की उड़ान चुनता हूँ

एक दिन ख्वाब में देखे गए महल गिर जायेंगे 
जानते हुए भी रोज़ नयी दीवार एक चुनता हूँ

सब हैं चोर हुकूमत के इन गलियारों में
फिर भी अपने लिए सरकार नयी चुनता हूँ

यकीन नहीं कर पाता ख़ुदा में न ही जन्नत में
अब तो हर रोज़ ही एक बुरी खबर सुनता हूँ

आजकल आम हुए हैं बम के धमाके 'फणि'
इसलिए जाँ अपनी हथेली पे लिए घूमता हूँ

5 comments:

Khushi said...

Suberb !!! keep up the good work !!

रेखा said...

वर्तमान परिस्थिति में एकदम प्रासंगिक है आपकी रचना ............आभार

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

दूर हूँ अपनो से पर इक तस्वीर है पर्चों के पुलिँदो में
कमीज़ की जेब में रक्खे शहर सारा घूमता हूँ
ना जाने कब् कोइ धमाका मुझे भी ले उडे
इसलिए घर से निकलने से पहले और घर आने के बाद
सब से पहले वोही तस्वीर चूमता हूँ!

Dimple said...

Wonderfully composed!
You have done a fabulous job of writing such a nice and meaningful poem...
Touchy!

Dimple

Raj Sudan said...

I Appreciate.