Sunday, 22 January 2012

यूँ ही...

Facebook के एक मित्र हैं डॉ. फैयाज़ उद्दीन उनसे बातों बातों में चंद अश'आर जुड़ गए, उम्मीद है पसंद आयेंगे. सभी एक दुसरे से अलग से हैं फिर भी पेश-ए-खिदमत है...

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सपनें भी देखें सदा मुस्कराएं खुल के मिलें हम हसें और हसाएं
दिन चार जीने हैं जी भर जियें हम दुःख बाँट लें और खुशियाँ लुटाएं 
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वो मेरा नहीं था न सही उसकी यादें तो मेरी अपनी हैं
जिंदगी में वो नहीं न सही ये ख्वाब मेरे तो अपने हैं 
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उससे मिलता हूँ अपने दिल की वापसी की आस लिए
दिल तो नहीं मिलता हाँ उसे धड़कने का बहाना मिल जाता है
---तेरी आवाज़ सुन कर धडकनें तेज हो गयी
दिल को जो हाथ लगाया तो वो तेरा निकला

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बेकार ही मैं तुझे बेवफा मान बैठा था
ये मेरा दिल था जो असल में बेवफा निकला
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तुम  मसरूफ थे अपनी तनहाइयों में हम भी मजबूर अपनी आवारगी से
पता भी नहीं चला कब तबाह हो गए रिश्ते हमारे हमारी ही बेचारगी से
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