न हुआ इश्क न सही, कोई महबूब भी मिला नहीं
चलो कम से कम शब्-ए-हिजरा सा तो कोई गिला नहीं
लाख मिन्नतें कर लो ख़ुदा से, न वो सुनता है न सुनेगा तेरी
दो कदम बढ़ के हाथ थामो तो, उससे बढ़ कर दुआ नहीं होती.
जुबां खामोश रहे और कुछ कहने की ज़ुरूरत भी न हो
कुछ ऐसा हो कि कोई तमन्ना, कोई मसर्रत भी न हो
ख़्वाबों को भी रातों में दस्तक देने का बहाना न मिले
और इस जहां में किसी और को पाने की चाहत भी न हो
जुबां-ए-ख़ास को कुछ कहने की ज़ुरूरत कहाँ होती है
तमन्नाएं व मसर्रतें भी इंसानियत की ही जुबां होती हैं
क़ातिल ने क़त्ल करके पूछा यूँ हाल-ए-दिल
जो जान रह गयी थी, वो उसको भी ले गया
हाय ये शर्म-ओ-हया और ये गुस्ताख नज़र
मेरे क़ातिल ने कुछ ऐसे ही हथियार छुपा रखे हैं
कहीं दैर-ओ-हरम तो कहीं बंदगी पे सवाल
ख़ुदा परस्तों ने ये अजब बवाल बना रखे हैं
सुर्ख गालों पर वो हंसी की चमक
आपने आँखों में क्या राज़ छुपा रखे हैं
चलो कम से कम शब्-ए-हिजरा सा तो कोई गिला नहीं
लाख मिन्नतें कर लो ख़ुदा से, न वो सुनता है न सुनेगा तेरी
दो कदम बढ़ के हाथ थामो तो, उससे बढ़ कर दुआ नहीं होती.
जुबां खामोश रहे और कुछ कहने की ज़ुरूरत भी न हो
कुछ ऐसा हो कि कोई तमन्ना, कोई मसर्रत भी न हो
ख़्वाबों को भी रातों में दस्तक देने का बहाना न मिले
और इस जहां में किसी और को पाने की चाहत भी न हो
जुबां-ए-ख़ास को कुछ कहने की ज़ुरूरत कहाँ होती है
तमन्नाएं व मसर्रतें भी इंसानियत की ही जुबां होती हैं
क़ातिल ने क़त्ल करके पूछा यूँ हाल-ए-दिल
जो जान रह गयी थी, वो उसको भी ले गया
हाय ये शर्म-ओ-हया और ये गुस्ताख नज़र
मेरे क़ातिल ने कुछ ऐसे ही हथियार छुपा रखे हैं
कहीं दैर-ओ-हरम तो कहीं बंदगी पे सवाल
ख़ुदा परस्तों ने ये अजब बवाल बना रखे हैं
सुर्ख गालों पर वो हंसी की चमक
आपने आँखों में क्या राज़ छुपा रखे हैं