Monday, 16 March 2020

मझधार

 
भावों का मोल नहीं है 
शब्दों पर बात अड़ी है 
दो पाटों के मध्यांतर 
ये जीवन नाव खड़ी है 

उन्मादी लहरें उठती हैं 
हो आतुर मुझे डुबोने को 
कैसे ये पतवार चलेगी 
हैं तीर नहीं मिलने को 

छूटें हैं कूल किनारे 
हम दूर निकल आये हैं 
तूफानों में कश्ती है 
घनघोर जलद छाये हैं 

अब आस एक बची है 
हो पार या कि घिर जाएं 
डूबें हम कूलंकषा में 
या कोई किनारा पाएं 

जीवन की नाव निकालूँ 
या सागर में स्वयं समाऊँ 
दुविधा में मेरा मन है 
भिड़ू या भीरू कहलाऊँ