बचपन नादान बहुत था
खाली आंगन था मगर
खेलने का सामान बहुत था
अभाव वाली जिंदगी थी
पर जीने का सामान बहुत था
बचपन नादान बहुत था
गाय बछड़े संग सुबह थे बीते
दुपहर बीती पेड़ों पर
शाम के शाम अलाव का संगत
रस्ते बीते थे मेड़ों पर
तारों के नीचे खाट बिछी थी
और दादी की कहानियों में ज्ञान बहुत था
बचपन नादान बहुत था
आज उस नादान बचपन को
नन्हीं बाहों, व्याकुल आंखों में देख रहा हूं
अभाव तो नहीं है ज्यादा
पर भाव वही देख रहा हूं
तुतले सवालात में घिर के समझा
गांव छोटा था मगर वहां सीखने का सामान बहुत था
बचपन नादान बहुत था