Sunday, 27 June 2010

शिव

शंकर, शिव या नीलकंठ, ये भगवान् शिव के अनेकों नामों में से एक है| यद्यपि भगवान् शिव को श्रृष्टि विनाशक कहा गया है, फिर भी वो लोगों में बहुत ही लोकप्रिय रहे हैं| ऐसा क्या हो सकता है जो भगवान् शिव को इतना महान और लोकप्रिय बनाता है? इस प्रश्न का जो उत्तर मेरी समझ में आता है वो उनके "नीलकंठ" नाम से सम्बंधित है| समुद्र मंथन के समय समुद्र से हलाहल नामक विष निकला जिसे सर्वाधिक घातक विष बताया गया, समस्या शुरू हुयी की ये हलाहल विष किसे दिया जाय, क्युंकी किसी में ऐसा सामर्थ्य नहीं था की वो हलाहल को ग्रहण कर सके| उस कठिन परिस्थिति में शिव ने यह विष स्वयं ग्रहण करने का निश्चय किया|
अब एक समस्या और थी, अगर वो सम्पूर्ण हलाहल ग्रहण करते हैं और वो उनके ह्रदय तक पहुँच जाता है तो उनकी मृत्यु निश्चित थीइस समस्या का समाधान भगवान् शिव ने हलाहल को अपने कंठ तक रोक कर किया. इस प्रकार उन्होंने हलाहल ग्रहण तो कर लिया परन्तु उसके विष के प्रभाव से अपने ह्रदय को बचाने में भी सफल रहे| ये तो बातें पौराणिक कथाओं की हैं, परन्तु जब हम इस गाथा को अपने वास्तविक जीवन के साथ मिश्रित कर के देखने का प्रयत्न करते हैं तो एक अलग तस्वीर उभर कर आती है| अगर हम हलाहल की
कल्पना इस संसार में करें तो वो क्या हो सकता है| मेरी नज़र में इस संसार के हलाहल : इर्ष्या, द्वेष, घ्रिणा, लोभ, शारीरिक या आर्थिक विषमताएं इत्यादि हैं| हम स्वयं शिव हो सकते हैं अगर हम इस संसार में रहते हुए, यहाँ से निकले इन हलाहल विष को ग्रहण कर इस संसार को विशुद्ध रखने का प्रयास करें और साथ ही अपने ह्रदय को भी कलुषित न होने दे| अगर हम ऐसा कर पाते है तो हम उस "शिव" शब्द को सार्थक करने में सफल हो जायेंगे|

पर काश ये इतना आसान होता... और हम सभी शिव हो सकते

मोह और कर्त्तव्य

जब भी मै और मेरे पिता आध्यात्म पे बातें करते है, दो शब्दों का जिक्र ज़रूर आता है : मोह और कर्त्तव्य. जब से इन दोनों शब्दों से अवगत हुआ हूँ इन दोनों के बीच के अंतर को समझने में थोड़ी कठिनाई हुयी है. मोह का त्याग करने के चक्कर में कभी कभी ऐसे लगता है की जैसे में अपने कर्तव्यों से दूर तो नहीं जा रहा, अपने मूल्यों को भूल तो नहीं रहा. और साथ ही कभी कभी ऐसा लगता है जैसे कर्तव्यों समझने में भूल कर मोह-माया में तो नहीं पड़ रहा.


ये कोई नया विषय नहीं है, संपूर्ण गीता का आधार यही दोनों शब्द हैं. पर गीता के अध्ययन के बाद भी कहीं न कहीं कोई भ्रान्ति मन-मस्तिष्क में बनी रहती है. 

Sunday, 20 June 2010

He is none other than me

I was calling him out since morning. I was yelling his name and he didn't responded. I wanted to see him talk to him, but I was not able to sense his presence. After a while I started to think that he has left, he has gone somewhere else. In fact I begun to believe that he's gone.

Now that I am alone and thinking about all this I realized that he was never gone, he was right there and answering to me, it was me who was not able to hear him, because I was so full of "me/myself".

How could he go anywhere else as he is none other than me?

Missing Myself

कुछ मामलों में अवसाद बड़ा ही अच्छा पल होता है| मेरी आदत है की मैं अपने आप से बहुत बातें करता हूँ| इधर कुछ दिनों से मौक़ा नहीं मिला अपने आप से मिलने का, ख़याल आया ऐसा क्या है जो मुझे अपने आप से मिला सके| जवाब भी खुद ही मिल गया "अवसाद", "अकेलापन"|

अभी पता नहीं क्यूँ अपने आप की बहुत याद आ रही है|

Friday, 11 June 2010

I have never thought of writing anything, but one day I got this idea to capture my thoughts somewhere. Actually I got inspired and encouraged by one of my friend who herself is a very good poet.

Don't have anything to continue but yes I'd love to give a try to give words to thoughts that eventually comes and goes into mind. The thoughts that shakes ones inner-self.