मानवता की पुकार
हे मानव तू अब जाग जाग
है मानवता में लगी आग
क्या फड़कता नहीं अब रोम रोम
एक कर दे अब तू धरा व्योम
देखे कैसे तू दुराचार
फैला जाये ये भ्रष्टाचार
अब कृष्ण नहीं कोई आएगा
तुझे राह नहीं दिखलायेगा
तुझे डगर स्वयं चुननी होगी
तुझे सहर नयी चुननी होगी
एक धर्म युद्ध कर प्रारंभ
नए युग का होगा आरम्भ
ये झूठे स्वप्न दिखाने वाले
आपस में आग लगाने वाले
ये कृष्ण नहीं, शकुनी हैं ये
दुष्ट बड़े कपटी हैं ये
इश्वर के नाम लड़ाते हैं
खुद उन्हें बेच के खाते हैं
ये राजनेता ये व्यभिचारी
मौला, पंडित भगवाधारी
ये दुराचारी ये दुष्ट बहुत
हो इनपे अब तू रुष्ट बहुत
सुन देश पुकारे बार बार
सुन अपने अंतर्मन की पुकार
कर आरम्भ नयी श्रृष्टि का
ये हो प्रारंभ नयी दृष्टि का
जहाँ सारे जन हों रहे निहाल
ऐसा हो अपना देश विशाल
न किसी को किसी से बैर रहे
अपने हों सभी, उनकी खैर रहे
उदित हो आदित्य दीप्त
विश्व में होगा भारत प्रदीप्त