Monday, 8 October 2012

गाँव मेरा बूढा हो चला है

गाँव मेरा बूढा हो चला है
नयी कोपलें अब कहाँ आती है इसमें
बस पुरानी कुछ शाखें ही बची हैं
वो भी ज़र्ज़र हो गयी हैं
न वो जोश है न ही वो रंग
वो तो गनीमत है
कि आते जाते त्यौहार
थोडा रंग, थोड़ा जूनून भर जाते हैं
बहुत छोटा बसंत आता है
ये थोड़ा जवान दिखने लगता है
पर त्योहारों के जाने के बाद
यहाँ हमेशा पतझड़ सा मौसम है
गाँव के बूढ़े इकट्ठे हो बूढ़े पेड के नीचे
अपने जिंदगी के अंतिम दिनों कों गिनते हैं
और अपनी जवानी की यादें बुनते हैं
मुझे है याद दिन जो बीते थे यहाँ पर
वो हंसना खेलना कबड्डी, पिट्टो हमारा
सडको पर खेलते बच्चे अब दिखते कहाँ हैं
वो राजनीति पर गहम चर्चे होते कहाँ है
अभी तक गाँव की जो तस्वीर
मेरे ज़हन में बसी थी
वो झूठी लगने लगी है
अब आया हूँ तो लगता है
कि गाँव मेरा बूढा हो चला है

Tuesday, 2 October 2012

कंक्रीट के जंगल



कौन कहता है जंगल बसाए नहीं जाते
हमारे शहरों को देखो कंक्रीट के जंगल खड़े हुए हैं
फर्क इतना है की इनमे स्वच्छंदता नहीं  है
ये जंगल पिंजरों से बने हैं
जिनमे प्रवासी पंछी आ कर बसेरा डालते हैं
और हमेशा की कैद को स्वयं ही अपनाते हैं
'और' की चाह में आते हैं अपने घर से दूर
फिर भूल जाते हैं वो चहचहाना, गाना
मैं भी आज घर से मीलों दूर एक आशियाना ढूंढ रहा हूँ
उसी कंक्रीट के जंगल में हमेशा कैद होने के लिए