भावों का मोल नहीं है,
शब्दों पर बात अड़ी है
दो पाटों के मध्यांतर
ये जीवन नाव खड़ी है
उन्मादी लहरें उठती हैं
हो आतुर मुझे डुबोने को
कैसे ये पतवार चलेगी
हैं तीर नहीं मिलने को
छूटें हैं कूल किनारे
हम दूर निकल आये हैं
तूफानों में कश्ती है
घनघोर जलद छाये हैं
अब आस एक बची है
हो पार या कि घिर जाएं
डूबें हम कूलंकषा में
या कोई किनारा पाएं
जीवन की नाव निकालूँ
या सागर में स्वयं समाऊँ
दुविधा में मेरा मन है
भिड़ू या भीरू कहलाऊँ
2 comments:
beautiful composition
Bahut khoob 👌
Post a Comment