Saturday, 21 August 2010

इंसान और ख़ुदा

कहने को तो मैं इंसान हूँ
पर मेरा ख़ुदा पत्थर के मकान में रहता है
वैसे तो दिल है मेरे पास
पर मेरा ख़ुदा आसमान में रहता है
ढूंढता हूँ मैं अपना ख़ुदा मंदिरों व मस्जिदों में
शायद मेरे दिल में अब जगह ही नहीं बची
खुद को देख कर आश्चर्य होता है
ख़ुदा ने ऐसी रचना क्यूँ रची
जो उसी को बाँट कर एक दुसरे के खून का प्यासा है
मानवता से बड़ी जिसकी अपनी ही अभिलाषा है

5 comments:

Dimple said...

Itna achha!
Uttam... atti-uttam :)

Regards,
Dimple

हरकीरत ' हीर' said...

जो उसी को बाँट कर एक दुसरे के खून का प्यासा है
मानवता से बड़ी जिसकी अपनी ही अभिलाषा है

है मानवता पर अमानवता का घृणित हाथ.....!!

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

bahut hee sundar..!!

mridula pradhan said...

kafi achchi lagi.

Fani Raj Mani CHANDAN said...

Thank you all
for your comments and encouragement :-)