Monday, 14 November 2016

अमीरी - गरीबी

गरीबी भूखे रहने के हज़ारों गुर सिखाती है 
अमीरी देख कर फिर अपनी जेबें भरती जाती है 

अगरचे मुल्क की जानिब कोई देखे बद-निगाही से 
गरीबी है जो अपना सर वतन को करती जाती है 

अमीरों के घरों में घी का दिया हर रोज़ जलता है 
गरीबी एक एक लकड़ी जोड़ कर चूल्हा जलाती है 

वतन के नाम की गाते सभी हैं, और गाएंगे 
गरीबी अपनी हड्डी को बजा कर धुन बनाती है 

वतन को बेच कर वो अपना दामन भर चुकी होगी 
गरीबी अब भी क़तारों में खड़ी हो बिकती जाती है 

वो सीना ठोक कर कहते हैं कुछ दिन बीत जाने दो 
गरीबी मुस्कुरा कर एक एक दिन काटे जाती है 

अमीरी हुक्मरानों संग अपना बिस्तर बदलती है 
यां चादर बिना जग कर गरीबी रातें बिताती है 

तुम्हें क्यों दर्द होगा, तेरे घर पकवान बनते हैं 
गरीबी अपने बच्चों को भूखे ही सुलाती है 

अमीरी गिन सको तो गिन लो अपने दिन शाहजहानी के 
गरीबी आ रही है, देख वो इंक़लाब लाती है 

गरीबी और अमीरी रिश्ते में बहनें है लेकिन 
एक दिल को जलाती है और दूजी 'चन्दन' जलाती है

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