Saturday, 3 December 2011

ज़िन्दगी

सोचा रुकूँ, ज़िन्दगी से दो चार बातें करूँ
पर ये ज़िन्दगी न जाने क्यूँ बदहवास सी भागती जा रही है.
न जाने इसे क्या चाहिए न जाने किसकी तलाश है!

है किस फ़िराक में ज़िन्दगी, तेरे दिल में कौन सी आरजू.
ज़रा कुछ खबर इधर भी दे, आ बैठ कर लें ज़रा गुफ्तगू

Sunday, 16 October 2011

आग का दरिया

वो न जीने का लुत्फ़ लेते हैं न मरने का जुनूं रखते हैं
मोहब्बत कर नहीं पाए या शायद कोई मिला नहीं है

हम अपनी ज़िन्दगी बेबाकी से जीते आयें हैं अब तक
आँखों में आँखे डाल कर कहते हैं, कोई गिला नहीं है

इश्क है, बेइन्तेहाँ है, फिर भी बड़े ग़मगीन रहते हो
अरे भाई! ये फूलों की वादी है जंगी किला नहीं है

किसी शायर ने इसको आग का दरिया कहा था
आह! क्या खूब दरिया है जो कहीं नीला नहीं है

Wednesday, 24 August 2011

जन लोक पाल पर विशेष

अजब समाँ है बंधा यहाँ पर अजब अनोखा रंग
सारे लगा रहे हैं नारे अन्ना जी के संग

सबको लगी एक ही चिंता भ्रष्टाचार की
बातें बड़ी बड़ी करते हैं सदाचार ही की

अब लगता है देश हमारा एक हो गया सारा
न कोई बंदिश जाती धर्म का न उंच नीच का फेरा

हर कोई इस पर चर्चा करता नज़र आ रहा प्यारे
कोई कहता अन्ना की जय, कोई उनके पांव पखारे

दृढ शक्ति ऐसी देखी है अन्ना जी में आज 
सरकारें भी सोच में पड़ी, मंत्रियों पर गिरी गाज

गांधीगिरी की ताकत हमने देखी पहली बार 
सत्याग्रह के बल से देखो डरती है सरकार

हम सबकी यही है ख्वाहिश भ्रष्टाचार बंद हो जाये 
आओ मिल संकल्प ले हम सब घूस किसी को नहीं खिलाएं

Thursday, 21 July 2011

अम्न का पहर

कहीं फट रहे हैं बम, कहीं बरपा हुआ कहर
शब कब से चल रही जाने होगी कब सहर

कुछ लोग मर गए और कुछ हो गए फना
उनको नहीं फिकर कोई वो हैं इससे बेखबर

बच्चे हुए अनाथ और बहनें हुंई बेवा 
इससे भी है अनजान और ये सो रहा शहर

वो धर्म बेचते हैं और करते हैं सियासत
इंसानियत को वो ही हैं जो दे रहे जहर

वो माँ बिलख रही है जिसका पूत मर गया
मुड़ मुड़ के देखती है वो बेटा गया जिधर

सुनता हूँ पब में झूमते और नाचते थे वो
खून में था सन रहा जब इस देश का जिगर

इंतज़ार है 'फणि' कि शब ये ढल भी जाये अब
खुशियों का शबब ले कर आये अम्न का पहर

Wednesday, 20 July 2011

Cat and Pooh

It was real fun writing this for my niece. She wanted to hear a story in the night before going to bed and this rhyme was formed.




There lived a pussy cat
in a small house
who liked to eat rat 
and little mouse


she had a master
his name was john
he was gentleman
very well known


one day the pussy cat
went to the zoo
she met there a bear
his name was Pooh


Pooh had one friend
he was Tigger
he looked same as the cat
but he was bigger


Pooh was so cute
he was very bonny
he loved his jar
filled with honey

Saturday, 16 July 2011

जाँ अपनी हथेली पे लिए घूमता हूँ

रोज़ कुछ नए सपने कुछ ख्वाब नए बुनता हूँ
एक नयी आस लिए मन की उड़ान चुनता हूँ

एक दिन ख्वाब में देखे गए महल गिर जायेंगे 
जानते हुए भी रोज़ नयी दीवार एक चुनता हूँ

सब हैं चोर हुकूमत के इन गलियारों में
फिर भी अपने लिए सरकार नयी चुनता हूँ

यकीन नहीं कर पाता ख़ुदा में न ही जन्नत में
अब तो हर रोज़ ही एक बुरी खबर सुनता हूँ

आजकल आम हुए हैं बम के धमाके 'फणि'
इसलिए जाँ अपनी हथेली पे लिए घूमता हूँ

Saturday, 28 May 2011

रात बीती है मगर अब भी सहर बाकी है

रात बीती है मगर अब भी सहर बाकी है
होश में आया हूँ मगर अब भी ज़हर बाकी है

कोई नींद से जगाये मुझे सुबह हुयी
आँख तो खुल गयी है नींद अभी बाकी है

गर्म है खून मगर उसमे उबाल आता ही नहीं
इतनी वहशत है ज़माने में, कसर कुछ और अभी बाकी है?

जहाँ में रंग न जाने कितने हैं
एक अमन का रंग है जो सदियों से बाकी है

बात शम्मा की क्यूँ कर रहा परवाने तू
उसी की आग में जलना तेरा जो बाकी है

नादाँ हो जो खुश हो इश्क के अफ़साने पर
अभी है वस्ल की शब हिज्र अभी बाकी है

तेरी बुज़दिली का ज़िम्मेदार ख़ुदा कैसे है
ताज-ए-हिंद में हक माँगना अभी बाकी है

उम्र जो ढल रही तेरी तो क्या हुआ मेरे दोस्त
जोश बाजुओं में और रगों में खून अभी बाकी है

दर्द दुनिया में है बहुत ये हमने मान लिया
ये भी माना तेरी आहों में तड़प बाकी है

मैं जानता हूँ कि तू घर में खड़ा सोच रहा
अहलेवतन को क्यूँ पूछूं घर है मेरा वो बाकी है

जाने क्या सोच रहे हैं धर्म के ठेकेदार यहाँ
हिन्दू मुस्लिम में भी इंसान अभी बाकी है


Tuesday, 24 May 2011

अंतर्मन

अन्दर से कुछ आवाज़ आती थी
जैसे कुछ बुला रहा हो
बहुत कोशिशों के बाद भी 
सुन नहीं पाता
मगर ऐसा लगता जैसे
मुझे रुला रहा हो
दिन बीते
साल बीते
ये सिलसिला चलता रहा
उसकी आवाज़
मुझतक पहुँचने की कोशिश करती 
और मैं
अन्दर ही अन्दर रोता रहा
अब वो सिलसिला बंद होने लगा है
शायद वो थक गया
आवाज़ दे कर
और शायद मेरे आंसू भी
अब सूख चले हैं
अब मैं उसे आवाज़ देता हूँ
और वो है कि सुनता नहीं है
अब बस ख़ामोशी है
अब बस सन्नाटा है
अब मन ख्वाब कोई बुनता नहीं
कुछ कहता और सुनता नहीं
अब कुछ कुछ समझ में आ रहा है
उसकी आवाज़ थमी नहीं
वो ही थम गया है
वो मेरा अंतर्मन था
मुझे जगा रहा था
अब खुद सो गया है
सदा के लिए

Tuesday, 15 March 2011

सरिस्का यात्रा - दूसरा दिन

सरिस्का यात्रा  - दूसरा दिन 

सुबह की चाय ने हम सबकी नींद खोली
क्या खूब थी जलपान में परांठे और मोर की बोली

अगला पड़ाव था सरिस्का का राष्ट्रीय उद्यान 
फिर हमें जाना था भानगढ़ के भूतिया किला महान

सरिस्का में तीन जीपों में निकली हमारी सफारी
बाघ थे हिरन थे और नीलगायों की संख्या थी भारी

बाघ और बाघिन ने खूब कराया इंतज़ार
रोंगटे खड़े हो गए जब सुनी उसकी दहाड़

बीच जंगल में पानी पीने को पहुंचे काली घाटी
ऊपर से नीचे सराबोर धूल और माटी माटी

काली घाटी में चिड़ियों ने हमसे लाड़ दिखाया
मधुमक्खियों वाले नल से हमने जीतू भाई को पानी पीता पाया

वहाँ से निकले आगे को चले भानगढ़ की ओर
सबकी हालत पस्त हो चली भूख लगी थी जोर

भान गढ़ के ढाबे में खायी मिटटी दाल और रोटी
फेल हो गयी जिसके आगे बटर चिकेन की बोटी

भानगढ़ के किले को खूब किया एक्सप्लोर
भूत हमें तो नहीं मिले लंगूर दिखे और मोर

थक थक के हम चूर हो कर आये अन्दर बस के
अब कुछ और नहीं चाहिए सिवाय निद्रा रस के

भूत महल से निकले फिर भी भूतों की बात न हो
ऐसा तो होना ही नहीं था, भूतों की कथा न हो

भूत प्रेतों की कहानी में पूनम ऐसे मशगूल हुयी
अमित ने ऐसे डराया, चीखी सब कुछ भूल गयी

सफ़र समाप्त हुआ इस तरह कविता हो गयी पूरी
माफ़ी अगर कुछ बात रह गयी हो अभी अधूरी

सरिस्का यात्रा - पहला दिन

अभी पिछले शनिवार और रविवार को मैं मेरे सहकर्मियों के साथ सरिस्का वन्य जीव अभ्यारण घूमने गया था, अगली दोनों कवितायें उसी यात्रा का वर्णन मात्र हैं.


सरिस्का यात्रा  - पहला दिन

हो चली Qualification टीम एक साथ
नापी अरावली के पठार करे उनसे दो दो हाथ

शुरू करी अन्ताक्षरी, खेला डम्ब-शेराज
पूरे टाइम थे सो रहे, मधुरिमा और जीतू महाराज

अन्ताक्षरी की क्या टीम बनी थी सबने गाया गान
स्वाति, दिनेश, अमित और विदुषी ने छेड़ी सबसे ज्यादा तान

संजीव की बोली निकले जब गिनती करनी हो छोटी
ढाबे पे स्वाद आ गया जब खायी पूरी सब्जी, परांठे और बटर रोटी

भीम घट्टे पे क्या खूब किया हम  सबने मिलके धमाल
झा जी जोश में ऊपर जा चढ़े और हम हंसते हुए निहाल

शाम हो चली और कर चले होटल की ओर प्रस्थान
आग जलायेंगे, खायेंगे पियेंगे फिर करेंगे विश्राम


रात हुयी, हुए इकट्ठे और हमने सुलगाई आग
उत्तम ने क्या ठुमके लगाये जब बजी मुन्नी राग


कविता मेरी ख़त्म नहीं हुयी धमाल अभी भी बाकी है
सुबह होने का इंतज़ार करो कमाल अभी भी बाकी है

Monday, 21 February 2011

जनतंत्र की मृत्यु

कुछ दिनों पहले "दिनकर" जी की रचना "जनतंत्र का जन्म" पढ़ रहा था, उस अनुपम काव्य रचना को पढ़ कर अनायास अभी के जनतंत्र की अवस्था पर विचार कर बैठा जिसका परिणाम यह कविता है| उम्मीद है आपको अच्छी लगेगी

जनतंत्र की मृत्यु हो चुकी, देखो शैया पे लेटा है
सोया है आँखे मूँद, आजाद भारत का बेटा है


नब्ज़ टटोलो देखो कुछ सांस अभी गर बाकी हो
इसकी जर्जर हड्डियों में जान अभी कुछ बाकी हो


जनतंत्र द्रौपदी बन चूका, इद्रप्रस्थ में पुन: आज
दू:शासन हैं सभी, ना भीष्म, विदुर और न धर्मराज


हनन होता इसके सम्मान का, लुटती इज्ज़त रोज़
जनता होकर मौन सह रही इस अपमान का बोझ


बापू, नेहरु और शहीदों ने जो सपना देखा भारत का
अभी कितने टुकड़े होने है उनकी लिखी इबारत का


लूट रहे हैं नेता सारे, घुट घुट मरता जनतंत्र यहाँ
स्विस बैंक में जमा हुआ है, लूट का माल गया वहाँ


जागो जनता सिंहनाद करो, उठो और हुंकार करो
गरजो तुम इतना भीषण, गांडीव बिना टंकार करो


भगत सिंह और बापू के अरमानो को जीवंत करो
अमृत पान कराओ, हिंद को सच का जनतंत्र करो